खुल के रो भी सकूँ और हँस भी सकूँ जी भर के
अभी इतनी भी फ़राग़त में नहीं रह सकता
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ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का
अभी मेरी अपनी समझ में भी नहीं आ रही
हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ
आतश ओ इंजिमाद है मुझ में
साल-हा-साल से ख़ामोश थे गहरे पानी
जिस्म के रेगज़ार में शाम-ओ-सहर सदा करूँ
मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है
दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा
उसी से आए हैं आशोब आसमाँ वाले
आगे बढ़ूँ तो ज़र्द घटा मेरे रू-ब-रू
पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में