मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है
सूखने डाल दिया जाऊँ जो धोया हुआ मैं
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हद हो चक्की है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो
हवा बदल गई उस बेवफ़ा के होने से
अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना
दिन पर सोच सुलगती है या कभी रात के बारे में
कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है
खुल के रो भी सकूँ और हँस भी सकूँ जी भर के
ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा
अपनी ये शान-ए-बग़ावत कोई देखे आ कर
चलो इतनी तो आसानी रहेगी
जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है
लगाता फिर रहा हूँ आशिक़ों पर कुफ़्र के फ़तवे
दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा