मिरी फ़ज़ा में है तरतीब-ए-काएनात कुछ और
अजब नहीं जो तिरा चाँद है सितारा मुझे
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मक़्बूल-ए-अवाम हो गया मैं
इस बार मिली है जो नतीजे में बुराई
हम ने आवाज़ न दी बर्ग ओ नवा होते हुए
कुछ दिनों से जो तबीअत मिरी यकसू कम है
लगाता फिर रहा हूँ आशिक़ों पर कुफ़्र के फ़तवे
जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
मैं ज़र्द आग न पानी के सर्द डर में रहा
मुश्किल-पसंद ही सही मैं वस्ल में मगर
ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का
कोई इस बात को तस्लीम करे या न करे