मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता
नए लम्हों में तस्वीरें पुरानी माँग लेता हूँ
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इल्ज़ाम एक ये भी उठा लेना चाहिए
ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम ओ सहर
मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने
ये क्या फ़ुसूँ है कि सुब्ह-ए-गुरेज़ का पहलू
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
इक लहर है कि मुझ में उछलने को है 'ज़फ़र'
अपनी ये शान-ए-बग़ावत कोई देखे आ कर
कोई इस बात को तस्लीम करे या न करे
पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है
मैं ज़ियादा हूँ बहुत उस के लिए अब तक भी
हद हो चक्की है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो
झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'