बात मुझ में भी कुछ इस तरह की होगी जो यहाँ
कभी वापस ही न होता था वसूला हुआ मैं
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साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ थी पानी की तरह निय्यत-ए-दिल
इक लहर है कि मुझ में उछलने को है 'ज़फ़र'
बदन का सारा लहू खिंच के आ गया रुख़ पर
उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले
जहाँ लम्हा-ए-शाम बिखेर दिया
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
इसे भी 'ज़फ़र' मेरी हिम्मत ही समझो
हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
जो बंदा-ए-ख़ुदा था ख़ुदा होने वाला है