चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें
दीवार से पुराना कैलन्डर उतार दे
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ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा
खुल के रो भी सकूँ और हँस भी सकूँ जी भर के
पतंग उड़ाने से क्या मनअ कर सके ज़ाहिद
कोई इस बात को तस्लीम करे या न करे
पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में
इल्ज़ाम एक ये भी उठा लेना चाहिए
मैं बिखर जाऊँगा ज़ंजीर की कड़ियों की तरह
रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
मैं ज़ियादा हूँ बहुत उस के लिए अब तक भी
वही मिरे ख़स-ओ-ख़ाशाक से निकलता है
मक़्बूल-ए-अवाम हो गया मैं
कुछ भी न उस की ज़ीनत-ओ-ज़ेबाई से हुआ