लगता है इतना वक़्त मिरे डूबने में क्यूँ
अंदाज़ा मुझ को ख़्वाब की गहराई से हुआ
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तिलिस्म-ए-होश-रुबा में पतंग उड़ती है
पतंग उड़ाने से क्या मनअ कर सके ज़ाहिद
जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है
वो मक़ामात-ए-मुक़द्दस वो तिरे गुम्बद ओ क़ौस
जो बंदा-ए-ख़ुदा था ख़ुदा होने वाला है
रूह फूँकेगा मोहब्बत की मिरे पैकर में वो
किरदार उस को ढूँडते फिरते हैं जा-ब-जा
वक़्त ज़ाए न करो हम नहीं ऐसे वैसे
न जाने क्यूँ मिरी निय्यत बदल गई यक-दम
मिरी फ़ज़ा में है तरतीब-ए-काएनात कुछ और
मुस्तरद हो गया जब तेरा क़ुबूला हुआ मैं