जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा
अब इन्ही आँखों ने चाहा तो नज़ारे नहीं थे
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मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
दरिया दूर नहीं और प्यासा रह सकता हूँ
बदला ये लिया हसरत-ए-इज़हार से हम ने
हद हो चक्की है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो
तुझ को मेरी न मुझे तेरी ख़बर जाएगी
उठ और फिर से रवाना हो डर ज़ियादा नहीं
चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है
मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो 'ज़फ़र'
जिसे दरवाज़ा कहते थे वही दीवार निकली
नहीं कि तेरे इशारे नहीं समझता हूँ
फिर सर-ए-सुब्ह किसी दर्द के दर वा करने
अभी किसी के न मेरे कहे से गुज़रेगा