ख़ैरात का मुझे कोई लालच नहीं 'ज़फ़र'
मैं इस गली में सिर्फ़ सदा करने आया हूँ
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न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
आतश ओ इंजिमाद है मुझ में
रुख़-ए-ज़ेबा इधर नहीं करता
कोई इस बात को तस्लीम करे या न करे
अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना
यहाँ सब से अलग सब से जुदा होना था मुझ को
कुछ उस ने सोचा तो था मगर काम कर दिया था
पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को
इल्ज़ाम एक ये भी उठा लेना चाहिए
जिधर से खोल के बैठे थे दर अंधेरे का
जो बंदा-ए-ख़ुदा था ख़ुदा होने वाला है
तिलिस्म-ए-होश-रुबा में पतंग उड़ती है