ख़ुश-गुमाँ हर आसरा बे-आसरा साबित हुआ
ज़िंदगी तुझ से तअल्लुक़ खोखला साबित हुआ
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बे-क़नाअत क़ाफ़िले हिर्स-ओ-हवा ओढ़े हुए
रात भर सूरज के बन कर हम-सफ़र वापस हुए
तमाम फूल महकने लगे हैं खिल खिल कर
क्या ख़बर किस मोड़ पर बिखरे मता-ए-एहतियात
तमाम रंग जहाँ इल्तिजा के रक्खे थे
नक़ाब उस ने रुख़-ए-हुस्न-ए-ज़र पे डाल दिया
हर इंतिख़ाब यहाँ माज़ी-ओ-अक़ब का है
बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए
कभी दुआ तो कभी बद-दुआ से लड़ते हुए
कारवाँ से जो भी बिछड़ा गर्द-ए-सहरा हो गया