क्या ख़बर किस मोड़ पर बिखरे मता-ए-एहतियात
पत्थरों के शहर में हूँ आईना ओढ़े हुए
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हर्फ़-ए-तदबीर न था हर्फ़-ए-दिलासा रौशन
मिरी उम्मीद का सूरज कि तेरी आस का चाँद
हर इंतिख़ाब यहाँ माज़ी-ओ-अक़ब का है
ख़ुश-गुमाँ हर आसरा बे-आसरा साबित हुआ
नक़ाब उस ने रुख़-ए-हुस्न-ए-ज़र पे डाल दिया
तमाम रंग जहाँ इल्तिजा के रक्खे थे
बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए
रात भर सूरज के बन कर हम-सफ़र वापस हुए
कभी दुआ तो कभी बद-दुआ से लड़ते हुए
बे-क़नाअत क़ाफ़िले हिर्स-ओ-हवा ओढ़े हुए