मिरी उम्मीद का सूरज कि तेरी आस का चाँद
दिए तमाम ही रुख़ पर हवा के रक्खे थे
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हर इंतिख़ाब यहाँ माज़ी-ओ-अक़ब का है
रात भर सूरज के बन कर हम-सफ़र वापस हुए
ख़ुश-गुमाँ हर आसरा बे-आसरा साबित हुआ
कभी दुआ तो कभी बद-दुआ से लड़ते हुए
निगाह-ए-हुस्न-ए-मुजस्सम अदा को छूते ही
यूँही किसी की कोई बंदगी नहीं करता
हर्फ़-ए-तदबीर न था हर्फ़-ए-दिलासा रौशन
बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए
तमाम फूल महकने लगे हैं खिल खिल कर
क्या ख़बर किस मोड़ पर बिखरे मता-ए-एहतियात
नक़ाब उस ने रुख़-ए-हुस्न-ए-ज़र पे डाल दिया