तमाम फूल महकने लगे हैं खिल खिल कर
चमन में शोख़ी-ए-बाद-ए-सबा को छूते ही
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निगाह-ए-हुस्न-ए-मुजस्सम अदा को छूते ही
मिरी उम्मीद का सूरज कि तेरी आस का चाँद
रात भर सूरज के बन कर हम-सफ़र वापस हुए
यूँही किसी की कोई बंदगी नहीं करता
तमाम रंग जहाँ इल्तिजा के रक्खे थे
कारवाँ से जो भी बिछड़ा गर्द-ए-सहरा हो गया
क्या ख़बर किस मोड़ पर बिखरे मता-ए-एहतियात
बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए
कभी दुआ तो कभी बद-दुआ से लड़ते हुए
हर इंतिख़ाब यहाँ माज़ी-ओ-अक़ब का है
नक़ाब उस ने रुख़-ए-हुस्न-ए-ज़र पे डाल दिया