मैं पयम्बर तिरा नहीं लेकिन
मुझ से भी बात कर ख़ुदा मेरे
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एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती
संग-ए-बेहिस से उठी मौज-ए-सियह-ताब कोई
और भी गहरी हो जाती है उस की सरगोशी
जगमगाता हुआ ख़ंजर मिरे सीने में उतार
सेहन-ए-चमन में जाना मेरा और फ़ज़ा में बिखर जाना
दिन तिरी याद में ढल जाता है आँसू की तरह
दिन है बे-कैफ़ बे-गुनाहों सा
पहले मुझ को भी ख़याल-ए-यार का धोका हुआ
'ज़ेब' मुझे डर लगने लगा है अपने ख़्वाबों से
मौजा-ए-ग़म में रवानी भी तो हो
मुराद-ए-शिकवा नहीं लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू के सिवा
रंग-ए-ग़ज़ल में दिल का लहू भी शामिल हो