मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया
थके बदन को मिरे पत्थरों में दाब दिया
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है सदफ़ गौहर से ख़ाली रौशनी क्यूँकर मिले
खुली छतों से चाँदनी रातें कतरा जाएँगी
मेरा अदम वजूद भी क्या ज़र-निगार था
भड़कती आग है शो'लों में हाथ डाले कौन
खुली थी आँख समुंदर की मौज-ए-ख़्वाब था वो
महकती ज़ुल्फ़ों से ख़ोशे गुलों के छूट गिरे
अंदर अंदर खोखले हो जाते हैं घर
ज़ख़्म पुराने फूल सभी बासी हो जाएँगे
मुराद-ए-शिकवा नहीं लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू के सिवा
शोला-ए-मौज-ए-तलब ख़ून-ए-जिगर से निकला
बहार कौन सी तुझ में जमाल-ए-यार न थी
रास्ते में कहीं खोना ही तो है