अंदर अंदर खोखले हो जाते हैं घर
जब दीवारों में पानी भर जाता है
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हो चुके गुम सारे ख़द्द-ओ-ख़ाल मंज़र और मैं
ज़ख़्म लगा कर उस का भी कुछ हाथ खुला
सितमगरों का तरीक़-ए-जफ़ा नहीं जाता
तलाश एक बहाना था ख़ाक उड़ाने का
अब मुझ से ये दुनिया मिरा सर माँग रही है
ज़ख़्म पुराने फूल सभी बासी हो जाएँगे
मौजा-ए-ग़म में रवानी भी तो हो
मैं छू सकूँ तुझे मेरा ख़याल-ए-ख़ाम है क्या
जगमगाता हुआ ख़ंजर मिरे सीने में उतार
मौज़ू-ए-सुख़न हिम्मत-ए-आली ही रहेगी
बुझते सूरज ने लिया फिर ये सँभाला कैसा
ये कम है क्या कि मिरे पास बैठा रहता है