ये कम है क्या कि मिरे पास बैठा रहता है
वो जब तलक मिरे दिल को दुखा नहीं जाता
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बे-हिसी पर मिरी वो ख़ुश था कि पत्थर ही तो है
ये डूबती हुई क्या शय है तेरी आँखों में
सेहन-ए-चमन में जाना मेरा और फ़ज़ा में बिखर जाना
दिन है बे-कैफ़ बे-गुनाहों सा
वो और मोहब्बत से मुझे देख रहा हो
मैं अक्स-ए-आरज़ू था हवा ले गई मुझे
बे-कराँ दश्त-ए-बे-सदा मेरे
है सदफ़ गौहर से ख़ाली रौशनी क्यूँकर मिले
किस ने सहरा में मिरे वास्ते रक्खी है ये छाँव
गहरी रात है और तूफ़ान का शोर बहुत
मुझ से बिछड़ कर होगा समुंदर भी बेचैन
मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया