मुझ से बिछड़ कर होगा समुंदर भी बेचैन
रात ढले तो करता होगा शोर बहुत
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किस ने सहरा में मिरे वास्ते रक्खी है ये छाँव
और गुलों का काम नहीं होता कोई
रंग-ए-ग़ज़ल में दिल का लहू भी शामिल हो
नक़्श-ए-तस्वीर न वो संग का पैकर कोई
खुली थी आँख समुंदर की मौज-ए-ख़्वाब था वो
सूरज ने इक नज़र मिरे ज़ख़्मों पे डाल के
अक्स-ए-फ़लक पर आईना है रौशन आब ज़ख़ीरों का
उस के क़ुर्ब के सारे ही आसार लगे
उलट रही थीं हवाएँ वरक़ वरक़ उस का
और भी गहरी हो जाती है उस की सरगोशी
दिल है कि तिरी याद से ख़ाली नहीं रहता
मुझ से ऐसे वामांदा-ए-जाँ को बिस्तर-विस्तर क्या