न जाने क्या है कि जब भी मैं उस को देखता हूँ
तो कोई और मिरे रू-ब-रू निकलता है
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ख़ाक आईना दिखाती है कि पहचान में आ
जाग के मेरे साथ समुंदर रातें करता है
ठहरा वही नायाब कि दामन में नहीं था
ज़ख़्म लगा कर उस का भी कुछ हाथ खुला
ख़ंजर चमका रात का सीना चाक हुआ
तूफ़ाँ में नाव आई तो क्या सम्त क्या निशाँ
पहले मुझ को भी ख़याल-ए-यार का धोका हुआ
आगे चल के तो कड़े कोस हैं तन्हाई के
मैं अक्स-ए-आरज़ू था हवा ले गई मुझे
गो मिरी हर साँस इक पेगाज़-ए-सरमस्ती रही
अब तक तो किसी ग़ैर का एहसाँ नहीं मुझ पर
मैं पयम्बर तिरा नहीं लेकिन