फिर एक नक़्श का नैरंग 'ज़ेब' बिखरेगा
मिरे ग़ुबार को फिर उस ने पेच-ओ-ताब दिया
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अब तक तो किसी ग़ैर का एहसाँ नहीं मुझ पर
'ज़ेब' मुझे डर लगने लगा है अपने ख़्वाबों से
ये डूबती हुई क्या शय है तेरी आँखों में
लहर लहर क्या जगमग जगमग होती है
कब तलक ये शाला-ए-बे-रंग मंज़र देखिए
खुली छतों से चाँदनी रातें कतरा जाएँगी
जितना देखो उसे थकती नहीं आँखें वर्ना
सितमगरों का तरीक़-ए-जफ़ा नहीं जाता
ठहरा वही नायाब कि दामन में नहीं था
अधूरी छोड़ के तस्वीर मर गया वो 'ज़ेब'
बहार कौन सी तुझ में जमाल-ए-यार न थी