ये डूबती हुई क्या शय है तेरी आँखों में
तिरे लबों पे जो रौशन है उस का नाम है क्या
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दिल को सँभाले हँसता बोलता रहता हूँ लेकिन
ढला न संग के पैकर में यार किस का था
मैं तो चाक पे कूज़ा-गर के हाथ की मिट्टी हूँ
अधूरी छोड़ के तस्वीर मर गया वो 'ज़ेब'
एक झोंका हवा का आया 'ज़ेब'
उजड़ी हुई बस्ती की सुब्ह ओ शाम ही क्या
वो मेरे सामने ख़ंजर-ब-कफ़ खड़ा था 'ज़ेब'
देख कभी आ कर ये ला-महदूद फ़ज़ा
खुली थी आँख समुंदर की मौज-ए-ख़्वाब था वो
बुझते सूरज ने लिया फिर ये सँभाला कैसा
है सदफ़ गौहर से ख़ाली रौशनी क्यूँकर मिले
अब तक तो किसी ग़ैर का एहसाँ नहीं मुझ पर