वो मेरे सामने ख़ंजर-ब-कफ़ खड़ा था 'ज़ेब'
मैं देखता रहा उस को कि बे-नक़ाब था वो
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रात दमकती है रह रह कर मद्धम सी
उड़ा के ख़ाक बहुत मैं ने देख ली ऐ 'ज़ेब'
बुझते सूरज ने लिया फिर ये सँभाला कैसा
कोई ख़बर ही न थी मर्ग-ए-जुस्तुजू की मुझे
पहले मुझ को भी ख़याल-ए-यार का धोका हुआ
जाग के मेरे साथ समुंदर रातें करता है
अक्स-ए-फ़लक पर आईना है रौशन आब ज़ख़ीरों का
सेहन-ए-चमन में जाना मेरा और फ़ज़ा में बिखर जाना
शहर में हम से कुछ आशुफ़्ता-दिलाँ और भी हैं
जितना देखो उसे थकती नहीं आँखें वर्ना
छेड़ कर जैसे गुज़र जाती है दोशीज़ा हवा