उस की राहों में पड़ा मैं भी हूँ कब से लेकिन
भूल जाता हूँ उसे याद दिलाने के लिए
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अक्स-ए-फ़लक पर आईना है रौशन आब ज़ख़ीरों का
एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती
ताज़ा है उस की महक रात की रानी की तरह
गर्म लहू का सोना भी है सरसों की उजयाली में
ज़ख़्म लगा कर उस का भी कुछ हाथ खुला
लगाऊँ हाथ तुझे ये ख़याल-ए-ख़ाम है क्या
कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में
कब तलक ये शाला-ए-बे-रंग मंज़र देखिए
मैं ने बेताबाना बढ़ कर दश्त में आवाज़ दी
ग़ार के मुँह से ये चट्टान हटाने के लिए
घसीटते हुए ख़ुद को फिरोगे 'ज़ेब' कहाँ
सितमगरों का तरीक़-ए-जफ़ा नहीं जाता