मैं ने बेताबाना बढ़ कर दश्त में आवाज़ दी
जब ग़ुबार उट्ठा किसी दीवाने का धोका हुआ
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पहले मुझ को भी ख़याल-ए-यार का धोका हुआ
अक्स-ए-फ़लक पर आईना है रौशन आब ज़ख़ीरों का
कम रौशन इक ख़्वाब आईना इक पीला मुरझाया फूल
नक़्श-ए-तस्वीर न वो संग का पैकर कोई
अधूरी छोड़ के तस्वीर मर गया वो 'ज़ेब'
भड़कती आग है शो'लों में हाथ डाले कौन
गहरी रात है और तूफ़ान का शोर बहुत
ढला न संग के पैकर में यार किस का था
झुके हुए पेड़ों के तनों पर छाप है चंचल धारे की
ढूँढती फिरती हैं जाने मिरी नज़रें किस को
कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में
ठहरा वही नायाब कि दामन में नहीं था