कम रौशन इक ख़्वाब आईना इक पीला मुरझाया फूल
पस-मंज़र के सन्नाटे में एक नदी पथरीली सी
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मौजा-ए-ग़म में रवानी भी तो हो
अंदर अंदर खोखले हो जाते हैं घर
आगे चल के तो कड़े कोस हैं तन्हाई के
टूटती रहती है कच्चे धागे सी नींद
ज़ख़्म लगा कर उस का भी कुछ हाथ खुला
दिल है कि तिरी याद से ख़ाली नहीं रहता
शेर तो मुझ से तेरी आँखें कहला लेती हैं
मैं लाख इसे ताज़ा रखूँ दिल के लहू से
कोई ख़बर ही न थी मर्ग-ए-जुस्तुजू की मुझे
इक पीली चमकीली चिड़िया काली आँख नशीली सी
ढला न संग के पैकर में यार किस का था
अब मुझ से ये दुनिया मिरा सर माँग रही है