कहीं पता न लगा फिर वजूद का मेरे
उठा के ले गई दुनिया शिकार किस का था
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तू पशेमाँ न हो मैं शाद हूँ नाशाद नहीं
दिन तिरी याद में ढल जाता है आँसू की तरह
कोई ख़बर ही न थी मर्ग-ए-जुस्तुजू की मुझे
मरने का सुख जीने की आसानी दे
महकती ज़ुल्फ़ों से ख़ोशे गुलों के छूट गिरे
कम रौशन इक ख़्वाब आईना इक पीला मुरझाया फूल
झुके हुए पेड़ों के तनों पर छाप है चंचल धारे की
ये कम है क्या कि मिरे पास बैठा रहता है
लहू में तैरता फिरता है मेरा ख़स्ता बदन
सेहन-ए-चमन में जाना मेरा और फ़ज़ा में बिखर जाना
अब मुझ से ये दुनिया मिरा सर माँग रही है
ख़ंजर चमका रात का सीना चाक हुआ