जितना देखो उसे थकती नहीं आँखें वर्ना
ख़त्म हो जाता है हर हुस्न कहानी की तरह
Parveen Shakir
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देख कभी आ कर ये ला-महदूद फ़ज़ा
मैं छू सकूँ तुझे मेरा ख़याल-ए-ख़ाम है क्या
एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती
एक झोंका हवा का आया 'ज़ेब'
बस एक पर्दा-ए-इग़माज़ था कफ़न उस का
उड़ा के ख़ाक बहुत मैं ने देख ली ऐ 'ज़ेब'
ज़ख़्म पुराने फूल सभी बासी हो जाएँगे
दिन है बे-कैफ़ बे-गुनाहों सा
ये डूबती हुई क्या शय है तेरी आँखों में
मौज़ू-ए-सुख़न हिम्मत-ए-आली ही रहेगी
ग़ार के मुँह से ये चट्टान हटाने के लिए
शेर तो मुझ से तेरी आँखें कहला लेती हैं