एक झोंका हवा का आया 'ज़ेब'
और फिर मैं ग़ुबार भी न रहा
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बुझ कर भी शो'ला दाम-ए-हवा में असीर है
महकती ज़ुल्फ़ों से ख़ोशे गुलों के छूट गिरे
जितना देखो उसे थकती नहीं आँखें वर्ना
कब तलक ये शाला-ए-बे-रंग मंज़र देखिए
आलम से फ़ुज़ूँ तेरा आलम नज़र आता है
तलाश एक बहाना था ख़ाक उड़ाने का
उलट रही थीं हवाएँ वरक़ वरक़ उस का
शहर में हम से कुछ आशुफ़्ता-दिलाँ और भी हैं
बड़े अज़ाब में हूँ मुझ को जान भी है अज़ीज़
तेरे सामने आते हुए घबराता हूँ
'ज़ेब' अब ज़द में जो आ जाए वो दिल हो कि निगाह
कुछ दूर तक तो चमकी थी मेरे लहू की धार