'ज़ेब' अब ज़द में जो आ जाए वो दिल हो कि निगाह
उस की रफ़्तार है चलते हुए जादू की तरह
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तूफ़ाँ में नाव आई तो क्या सम्त क्या निशाँ
मैं ने देखा था सहारे के लिए चारों तरफ़
मिरी जगह कोई आईना रख लिया होता
ये डूबती हुई क्या शय है तेरी आँखों में
ढूँढती फिरती हैं जाने मिरी नज़रें किस को
दिल को सँभाले हँसता बोलता रहता हूँ लेकिन
अधूरी छोड़ के तस्वीर मर गया वो 'ज़ेब'
जितना देखो उसे थकती नहीं आँखें वर्ना
बे-हिसी पर मिरी वो ख़ुश था कि पत्थर ही तो है
कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में
ढला न संग के पैकर में यार किस का था
मौज़ू-ए-सुख़न हिम्मत-ए-आली ही रहेगी