तेरे सामने आते हुए घबराता हूँ
लब पे तिरा इक़रार है दिल में चोर बहुत
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ज़ख़्म लगा कर उस का भी कुछ हाथ खुला
टूटती रहती है कच्चे धागे सी नींद
मैं छू सकूँ तुझे मेरा ख़याल-ए-ख़ाम है क्या
अब मुझ से ये दुनिया मिरा सर माँग रही है
ढला न संग के पैकर में यार किस का था
कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में
ख़ंजर चमका रात का सीना चाक हुआ
मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया
कहीं पता न लगा फिर वजूद का मेरे
अब तक तो किसी ग़ैर का एहसाँ नहीं मुझ पर
शायद अब भी कोई शरर बाक़ी हो 'ज़ेब'
मरने का सुख जीने की आसानी दे