अब तक तो किसी ग़ैर का एहसाँ नहीं मुझ पर
क़ातिल भी कोई चाहने वाली ही रहेगी
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वो और मोहब्बत से मुझे देख रहा हो
ज़ख़्म ही तेरा मुक़द्दर हैं दिल तुझ को कौन सँभालेगा
लहू में तैरता फिरता है मेरा ख़स्ता बदन
गर्म लहू का सोना भी है सरसों की उजयाली में
न जाने क्या है कि जब भी मैं उस को देखता हूँ
मुझ से बिछड़ कर होगा समुंदर भी बेचैन
तू पशेमाँ न हो मैं शाद हूँ नाशाद नहीं
मौज़ू-ए-सुख़न हिम्मत-ए-आली ही रहेगी
मैं पयम्बर तिरा नहीं लेकिन
अक्स-ए-फ़लक पर आईना है रौशन आब ज़ख़ीरों का
किस ने सहरा में मिरे वास्ते रक्खी है ये छाँव
धो के तू मेरा लहू अपने हुनर को न छुपा