अब मुझ से ये दुनिया मिरा सर माँग रही है
कम्बख़्त मिरे आगे सवाली ही रहेगी
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बुझते सूरज ने लिया फिर ये सँभाला कैसा
तूफ़ाँ में नाव आई तो क्या सम्त क्या निशाँ
कुछ दूर तक तो चमकी थी मेरे लहू की धार
न अब्र से तिरा साया न तू निकलता है
एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती
खुली थी आँख समुंदर की मौज-ए-ख़्वाब था वो
रात दमकती है रह रह कर मद्धम सी
हो चुके गुम सारे ख़द्द-ओ-ख़ाल मंज़र और मैं
मैं पयम्बर तिरा नहीं लेकिन
नक़्श-ए-तस्वीर न वो संग का पैकर कोई
मैं ने बेताबाना बढ़ कर दश्त में आवाज़ दी