किस ने सहरा में मिरे वास्ते रक्खी है ये छाँव
धूप रोके है मिरा चाहने वाला कैसा
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दिन है बे-कैफ़ बे-गुनाहों सा
एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती
एक झोंका हवा का आया 'ज़ेब'
मुराद-ए-शिकवा नहीं लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू के सिवा
है बहुत ताक़ वो बेदाद में डर है ये भी
उड़ा के ख़ाक बहुत मैं ने देख ली ऐ 'ज़ेब'
लहू में तैरता फिरता है मेरा ख़स्ता बदन
महकती ज़ुल्फ़ों से ख़ोशे गुलों के छूट गिरे
'ज़ेब' मुझे डर लगने लगा है अपने ख़्वाबों से
ख़ंजर चमका रात का सीना चाक हुआ
बुझते सूरज ने लिया फिर ये सँभाला कैसा