महकती ज़ुल्फ़ों से ख़ोशे गुलों के छूट गिरे
कुछ और जैसे कि गुंजाइश-ए-बहार न थी
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न अब्र से तिरा साया न तू निकलता है
और भी गहरी हो जाती है उस की सरगोशी
टूटती रहती है कच्चे धागे सी नींद
उस के क़ुर्ब के सारे ही आसार लगे
न जाने क्या है कि जब भी मैं उस को देखता हूँ
मैं ने बेताबाना बढ़ कर दश्त में आवाज़ दी
शहर में हम से कुछ आशुफ़्ता-दिलाँ और भी हैं
दिल है कि तिरी याद से ख़ाली नहीं रहता
खुली थी आँख समुंदर की मौज-ए-ख़्वाब था वो
गहरी रात है और तूफ़ान का शोर बहुत
जगमगाता हुआ ख़ंजर मिरे सीने में उतार
मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया