जगमगाता हुआ ख़ंजर मिरे सीने में उतार
रौशनी ले के कभी ख़ाना-ए-वीरान में आ
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बे-हिसी पर मिरी वो ख़ुश था कि पत्थर ही तो है
थक गया एक कहानी सुनते सुनते मैं
बे-कराँ दश्त-ए-बे-सदा मेरे
मुराद-ए-शिकवा नहीं लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू के सिवा
एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती
कुछ दूर तक तो चमकी थी मेरे लहू की धार
ये डूबती हुई क्या शय है तेरी आँखों में
है बहुत ताक़ वो बेदाद में डर है ये भी
खुली छतों से चाँदनी रातें कतरा जाएँगी
लगाऊँ हाथ तुझे ये ख़याल-ए-ख़ाम है क्या
गो मिरी हर साँस इक पेगाज़-ए-सरमस्ती रही