कुछ दूर तक तो चमकी थी मेरे लहू की धार
फिर रात अपने साथ बहा ले गई मुझे
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सूरज ने इक नज़र मिरे ज़ख़्मों पे डाल के
मिरी जगह कोई आईना रख लिया होता
रंग-ए-ग़ज़ल में दिल का लहू भी शामिल हो
लगाऊँ हाथ तुझे ये ख़याल-ए-ख़ाम है क्या
एक झोंका हवा का आया 'ज़ेब'
सेहन-ए-चमन में जाना मेरा और फ़ज़ा में बिखर जाना
शहर में हम से कुछ आशुफ़्ता-दिलाँ और भी हैं
बे-कराँ दश्त-ए-बे-सदा मेरे
भड़कती आग है शो'लों में हाथ डाले कौन
गर्म लहू का सोना भी है सरसों की उजयाली में
मैं ने बेताबाना बढ़ कर दश्त में आवाज़ दी
इक पीली चमकीली चिड़िया काली आँख नशीली सी