मिरी जगह कोई आईना रख लिया होता
न जाने तेरे तमाशे में मेरा काम है क्या
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थक गया एक कहानी सुनते सुनते मैं
कुछ दूर तक तो चमकी थी मेरे लहू की धार
मौज-ए-रेग सराब-सहरा कैसे बनती है
एक झोंका हवा का आया 'ज़ेब'
बस एक पर्दा-ए-इग़माज़ था कफ़न उस का
वो और मोहब्बत से मुझे देख रहा हो
सूरज ने इक नज़र मिरे ज़ख़्मों पे डाल के
'ज़ेब' अब ज़द में जो आ जाए वो दिल हो कि निगाह
तूफ़ाँ में नाव आई तो क्या सम्त क्या निशाँ
गो मिरी हर साँस इक पेगाज़-ए-सरमस्ती रही
ज़ख़्म पुराने फूल सभी बासी हो जाएँगे
खुली छतों से चाँदनी रातें कतरा जाएँगी