तूफ़ाँ में नाव आई तो क्या सम्त क्या निशाँ
कुछ देर में रहा न हवा का शुमार भी
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खुली थी आँख समुंदर की मौज-ए-ख़्वाब था वो
दिल को सँभाले हँसता बोलता रहता हूँ लेकिन
'ज़ेब' मुझे डर लगने लगा है अपने ख़्वाबों से
लगाऊँ हाथ तुझे ये ख़याल-ए-ख़ाम है क्या
मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया
कब तलक ये शाला-ए-बे-रंग मंज़र देखिए
मौज़ू-ए-सुख़न हिम्मत-ए-आली ही रहेगी
लहू में तैरता फिरता है मेरा ख़स्ता बदन
बे-हिसी पर मिरी वो ख़ुश था कि पत्थर ही तो है
सेहन-ए-चमन में जाना मेरा और फ़ज़ा में बिखर जाना
मैं छू सकूँ तुझे मेरा ख़याल-ए-ख़ाम है क्या
अब मुझ से ये दुनिया मिरा सर माँग रही है