खुली छतों से चाँदनी रातें कतरा जाएँगी
कुछ हम भी तन्हाई के आदी हो जाएँगे
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मौज-ए-रेग सराब-सहरा कैसे बनती है
मुझ से ऐसे वामांदा-ए-जाँ को बिस्तर-विस्तर क्या
रंग-ए-ग़ज़ल में दिल का लहू भी शामिल हो
ज़ख़्म पुराने फूल सभी बासी हो जाएँगे
मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया
हो चुके गुम सारे ख़द्द-ओ-ख़ाल मंज़र और मैं
मिरी जगह कोई आईना रख लिया होता
घसीटते हुए ख़ुद को फिरोगे 'ज़ेब' कहाँ
फिर एक नक़्श का नैरंग 'ज़ेब' बिखरेगा
जाग के मेरे साथ समुंदर रातें करता है
कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में
तेरे सामने आते हुए घबराता हूँ