घसीटते हुए ख़ुद को फिरोगे 'ज़ेब' कहाँ
चलो कि ख़ाक को दे आएँ ये बदन उस का
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आलम से फ़ुज़ूँ तेरा आलम नज़र आता है
तेरे सामने आते हुए घबराता हूँ
धो के तू मेरा लहू अपने हुनर को न छुपा
बे-हिसी पर मिरी वो ख़ुश था कि पत्थर ही तो है
जाग के मेरे साथ समुंदर रातें करता है
बे-कराँ दश्त-ए-बे-सदा मेरे
मौजा-ए-ग़म में रवानी भी तो हो
लगाऊँ हाथ तुझे ये ख़याल-ए-ख़ाम है क्या
मैं छू सकूँ तुझे मेरा ख़याल-ए-ख़ाम है क्या
सितमगरों का तरीक़-ए-जफ़ा नहीं जाता
बड़े अज़ाब में हूँ मुझ को जान भी है अज़ीज़