बड़े अज़ाब में हूँ मुझ को जान भी है अज़ीज़
सितम को देख के चुप भी रहा नहीं जाता
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मैं पयम्बर तिरा नहीं लेकिन
शोला-ए-मौज-ए-तलब ख़ून-ए-जिगर से निकला
आगे चल के तो कड़े कोस हैं तन्हाई के
कम रौशन इक ख़्वाब आईना इक पीला मुरझाया फूल
वो और मोहब्बत से मुझे देख रहा हो
संग-ए-बेहिस से उठी मौज-ए-सियह-ताब कोई
गहरी रात है और तूफ़ान का शोर बहुत
तलाश एक बहाना था ख़ाक उड़ाने का
बहार कौन सी तुझ में जमाल-ए-यार न थी
बे-कराँ दश्त-ए-बे-सदा मेरे
नक़्श-ए-तस्वीर न वो संग का पैकर कोई