बे-हिसी पर मिरी वो ख़ुश था कि पत्थर ही तो है
मैं भी चुप था कि चलो सीने में ख़ंजर ही तो है
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मैं ने बेताबाना बढ़ कर दश्त में आवाज़ दी
और भी गहरी हो जाती है उस की सरगोशी
मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया
उस की राहों में पड़ा मैं भी हूँ कब से लेकिन
सूरज ने इक नज़र मिरे ज़ख़्मों पे डाल के
आगे चल के तो कड़े कोस हैं तन्हाई के
अंदर अंदर खोखले हो जाते हैं घर
उजड़ी हुई बस्ती की सुब्ह ओ शाम ही क्या
मुझ से ऐसे वामांदा-ए-जाँ को बिस्तर-विस्तर क्या
भड़कती आग है शो'लों में हाथ डाले कौन
मिरी जगह कोई आईना रख लिया होता
एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती