चमक रहा है ख़ेमा-ए-रौशन दूर सितारे सा
दिल की कश्ती तैर रही है खुले समुंदर में
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उजड़ी हुई बस्ती की सुब्ह ओ शाम ही क्या
उलट रही थीं हवाएँ वरक़ वरक़ उस का
जितना देखो उसे थकती नहीं आँखें वर्ना
बे-कराँ दश्त-ए-बे-सदा मेरे
तू पशेमाँ न हो मैं शाद हूँ नाशाद नहीं
खुली थी आँख समुंदर की मौज-ए-ख़्वाब था वो
लहर लहर क्या जगमग जगमग होती है
सूरज ने इक नज़र मिरे ज़ख़्मों पे डाल के
लगाऊँ हाथ तुझे ये ख़याल-ए-ख़ाम है क्या
जाग के मेरे साथ समुंदर रातें करता है
बुझते सूरज ने लिया फिर ये सँभाला कैसा
ढला न संग के पैकर में यार किस का था