जाग के मेरे साथ समुंदर रातें करता है
जब सब लोग चले जाएँ तो बातें करता है
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बुझते सूरज ने लिया फिर ये सँभाला कैसा
घसीटते हुए ख़ुद को फिरोगे 'ज़ेब' कहाँ
अधूरी छोड़ के तस्वीर मर गया वो 'ज़ेब'
वो मेरे सामने ख़ंजर-ब-कफ़ खड़ा था 'ज़ेब'
उजड़ी हुई बस्ती की सुब्ह ओ शाम ही क्या
उस की राहों में पड़ा मैं भी हूँ कब से लेकिन
और भी गहरी हो जाती है उस की सरगोशी
एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती
जितना देखो उसे थकती नहीं आँखें वर्ना
मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया
मैं तो चाक पे कूज़ा-गर के हाथ की मिट्टी हूँ
पहले मुझ को भी ख़याल-ए-यार का धोका हुआ