उड़ा के ख़ाक बहुत मैं ने देख ली ऐ 'ज़ेब'
वहाँ तलक तो कोई रास्ता नहीं जाता
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न जाने क्या है कि जब भी मैं उस को देखता हूँ
झुके हुए पेड़ों के तनों पर छाप है चंचल धारे की
आलम से फ़ुज़ूँ तेरा आलम नज़र आता है
ढूँढती फिरती हैं जाने मिरी नज़रें किस को
और भी गहरी हो जाती है उस की सरगोशी
मौजा-ए-ग़म में रवानी भी तो हो
ठहरा वही नायाब कि दामन में नहीं था
मैं ने बेताबाना बढ़ कर दश्त में आवाज़ दी
रास्ते में कहीं खोना ही तो है
है बहुत ताक़ वो बेदाद में डर है ये भी
एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती
बे-हिसी पर मिरी वो ख़ुश था कि पत्थर ही तो है