उलट रही थीं हवाएँ वरक़ वरक़ उस का
लिखी गई थी जो मिट्टी पे वो किताब था वो
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आगे चल के तो कड़े कोस हैं तन्हाई के
गर्म लहू का सोना भी है सरसों की उजयाली में
ढूँढती फिरती हैं जाने मिरी नज़रें किस को
बे-कराँ दश्त-ए-बे-सदा मेरे
शोला-ए-मौज-ए-तलब ख़ून-ए-जिगर से निकला
रात दमकती है रह रह कर मद्धम सी
कहीं पता न लगा फिर वजूद का मेरे
गहरी रात है और तूफ़ान का शोर बहुत
छेड़ कर जैसे गुज़र जाती है दोशीज़ा हवा
महकती ज़ुल्फ़ों से ख़ोशे गुलों के छूट गिरे
एक झोंका हवा का आया 'ज़ेब'
उजड़ी हुई बस्ती की सुब्ह ओ शाम ही क्या