ढूँढती फिरती हैं जाने मिरी नज़रें किस को
ऐसी बस्ती में जहाँ कोई भी आबाद नहीं
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घसीटते हुए ख़ुद को फिरोगे 'ज़ेब' कहाँ
अंदर अंदर खोखले हो जाते हैं घर
रंग-ए-ग़ज़ल में दिल का लहू भी शामिल हो
हो चुके गुम सारे ख़द्द-ओ-ख़ाल मंज़र और मैं
मैं तो चाक पे कूज़ा-गर के हाथ की मिट्टी हूँ
कहीं पता न लगा फिर वजूद का मेरे
गर्म लहू का सोना भी है सरसों की उजयाली में
'ज़ेब' मुझे डर लगने लगा है अपने ख़्वाबों से
ताज़ा है उस की महक रात की रानी की तरह
लहर लहर क्या जगमग जगमग होती है
कुछ दूर तक तो चमकी थी मेरे लहू की धार
तू पशेमाँ न हो मैं शाद हूँ नाशाद नहीं