शायद अब भी कोई शरर बाक़ी हो 'ज़ेब'
दिल की राख से आँच आती है कम कम सी
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ख़ाक आईना दिखाती है कि पहचान में आ
चमक रहा है ख़ेमा-ए-रौशन दूर सितारे सा
सूरज ने इक नज़र मिरे ज़ख़्मों पे डाल के
मैं पयम्बर तिरा नहीं लेकिन
मौज़ू-ए-सुख़न हिम्मत-ए-आली ही रहेगी
ढूँढती फिरती हैं जाने मिरी नज़रें किस को
ताज़ा है उस की महक रात की रानी की तरह
ठहरा वही नायाब कि दामन में नहीं था
दिल को सँभाले हँसता बोलता रहता हूँ लेकिन
कोई ख़बर ही न थी मर्ग-ए-जुस्तुजू की मुझे
तूफ़ाँ में नाव आई तो क्या सम्त क्या निशाँ
मुझ से ऐसे वामांदा-ए-जाँ को बिस्तर-विस्तर क्या