संग-ए-बेहिस से उठी मौज-ए-सियह-ताब कोई
सरसराता हुआ इक साँप खंडर से निकला
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दिल है कि तिरी याद से ख़ाली नहीं रहता
दिल को सँभाले हँसता बोलता रहता हूँ लेकिन
दिन है बे-कैफ़ बे-गुनाहों सा
एक झोंका हवा का आया 'ज़ेब'
मौजा-ए-ग़म में रवानी भी तो हो
पहले मुझ को भी ख़याल-ए-यार का धोका हुआ
झुके हुए पेड़ों के तनों पर छाप है चंचल धारे की
रात दमकती है रह रह कर मद्धम सी
चमक रहा है ख़ेमा-ए-रौशन दूर सितारे सा
उड़ा के ख़ाक बहुत मैं ने देख ली ऐ 'ज़ेब'
दिन तिरी याद में ढल जाता है आँसू की तरह
ज़ख़्म लगा कर उस का भी कुछ हाथ खुला