दिल को सँभाले हँसता बोलता रहता हूँ लेकिन
सच पूछो तो 'ज़ेब' तबीअत ठीक नहीं होती
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मौज-ए-रेग सराब-सहरा कैसे बनती है
दिन है बे-कैफ़ बे-गुनाहों सा
और भी गहरी हो जाती है उस की सरगोशी
ज़ख़्म लगा कर उस का भी कुछ हाथ खुला
सितमगरों का तरीक़-ए-जफ़ा नहीं जाता
बहार कौन सी तुझ में जमाल-ए-यार न थी
धो के तू मेरा लहू अपने हुनर को न छुपा
शोला-ए-मौज-ए-तलब ख़ून-ए-जिगर से निकला
दिल है कि तिरी याद से ख़ाली नहीं रहता
मरने का सुख जीने की आसानी दे
बे-हिसी पर मिरी वो ख़ुश था कि पत्थर ही तो है
है बहुत ताक़ वो बेदाद में डर है ये भी